कुछ दिनों से आसाम में हो रही हिंसा से परेशान हूँ । चंद लोग जो बाहरी मुल्को से आकर हमारे देश में घृणा और हिंसा का वातावरण फैला रहे हैं, हमारे देश की अखंडता को खंडित कर रहे हैं और हमारी सरकारें बिना कोई ठोस कदम उठाये, इसे जातीय हिंसा का नाम दे रही हैं।
यह दो धर्मो के बीच का विवाद नहीं, अपितु देसी और विदेशी का विवाद है। हमारी सरकारें यह बात मानना नहीं चाहती की ये घुसपैठिये हैं जो हमारी धरती पर चोरी छुपे घुस आयें हैं। और वो मानें भी क्यों उनका वोट बैंक जो ख़राब हो जायेगा।
सरकारी आकडे बताते हैं की हमारे देश में लाखों बंगलादेशी रिफ्यूजी रह रहे हैं, लेकिन इस देश के प्रधानमंत्री कहते हैं की हमारे देश में एक भी बंगलादेशी नहीं है। हम किसकी बात मानें?
और असाम के आग की लपटें मुंबई, बेंगलोर और कितने जगहों तक पहुच गयी। हमारे उत्तर-पूर्व के भाई बहनों को उनके ही देश में, जहाँ विश्व की सबसे बड़ी लोकतान्त्रिक व्यवस्था है, जहाँ हर नागरिक को सामान अधिकार प्राप्त है, विदेशी समझा जाता है, उन्हें भगाया जाता है। हमारे उत्तर पूर्व के भाई बहन अपने ही देश में विदेशियों की तेरह रह रहे हैं, उन्हें हम एक अलग दृष्टि से देखते हैं।
तो अगर कल होके जब यही उत्तर पूर्व इन सब बातों से परेशान होकर चीन से मिल जाये तो क्या ये हमारी विफलता का प्रतिक नहीं होगा? क्या यह भारत की हार नहीं होगी? तब हम किसको दोष देंगे? कभी सोचा है?
इस तरह की जातीय हिंसा २००२ में गुजरात में भी हुई थी, जिसके लिए पूरा देश वहां की सरकार को दोषी मानता है, नरेन्द्र मोदी को हत्यारा और ना जाने क्या क्या की संज्ञा दे दी गयी, लेकिन जब वैसी ही घटना असाम में हो रही है तो वहां के मुख्यमंत्री के बारे में ये कथित धर्मनिरपेक्ष लोग कुछ नहीं बोलते, मीडिया भी शांत है। हमारे प्रधानमंत्री भी उसी असाम से इस देश का प्रतिनिधित्व करतें हैं, और उनके ही गृह प्रदेश में ऐसी हिंसा.... तो क्या इसके लिए वो जिम्मेदार नहीं हैं? क्या उनको भी उसी संज्ञा से नहीं नवाजा जाना चाहिए जो नरेन्द्र मोदी के लिए प्रयोग होते हैं?
जरा सोचिये...
इस लेख में लिखे गए विचार लेखक के अपने विचार हैं। इस देश के स्वतन्त्र नागरिक होने के कारण इस देश का संविधान उसे अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता देता है। इस लेख का उदेश्य किसी की भावनाओ को ठेश पहुचना नहीं है.धन्यवाद्
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